A Literary Reading of Kabuliwala – Rabindranath Tagore’s story

इस literary blog में हम author, visionary aur legendary artist गुरुदेव –  रबीन्द्रनाथ  टैगोर (Rabindranath Tagore) और उनकी short story “काबुलीवाला’ (Kabuliwala) पर बात करेंगे, जिन्होंने Bengal Renaissance के दौर में पूरे समाज की सोच को एक नई दिशा दी।

“The Bard Who Belonged to the World.”

1861 में कलकत्ता के एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मे रबीन्द्रनाथ टैगोर, बचपन से ही एक artistic और intellectual माहौल में पले-बढ़े। सिर्फ़ 8 साल की उम्र में उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था, और 16 साल की उम्र में अपना पहला major poetry collection publish किया, pen name भानुसिंह के नाम से।

11 साल की उम्र से उन्होंने travel करना शुरू किया, इसीलिए उनकी learning और vision सिर्फ़ academic boundaries तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक ऐसी philosophy बना जिसने आगे चलकर उनकी सोच और कला को deeply influence किया। और शायद यही वजह थी कि वो Nobel Prize जीतने वाले पहले non-European व्यक्ति बनें।

गुरुदेव की कहानिया, उनकी philosophies और उनकी fearlessness आज भी उतनी ही relevant है जितनी उनके दौर में थी। और आज हम बात करेंगे एक ऐसी ही iconic कहानी, Kabuliwala की जिसे classrooms से लेकर cinema screens तक बार – बार पढ़ा गया, और adapt भी किया गया।

ये कहानी है dry-fruit बेचने वाले रहमत की, जो एक पश्तून है और हर साल Kabul से Calcutta आता है अपने business के लिए। यहाँ एक 5 साल की बच्ची मिनी से रहमत की bonding हो जाती है, जिसमें उसे अपनी बेटी की झलक दिखती है।

एक दिन कर्ज़ा वसूलने के चक्कर में उसके हाथो एक आदमी का खून हो जाता है। आठ साल बाद रहमत जेल से रिहा होता है, और मिनी से मिलने आता है। मिनी बड़ी हो चुकी है, आज उसकी शादी है और वो उसे पहचान नहीं पाती। मिनी के पिता उसे कुछ पैसे देते हैं ताकि वो अपनी खुद की बेटी से मिलने वापस अपने घर जा सके।

1892 में पहली बार publish होने के बाद से Kabuliwala को हमेशा से गुरुदेव की सबसे iconic short stories में गिना गया है। Irish teacher और social activist Margaret Noble (Sister Nivedita) ने 1910 में इस कहानी का पहला English version translate किया।

Critics और readers, दोनों ने इस कहानी की emotional simplicity, human warmth, और universal connection की खूब तारीफ की है।

पराए देश में struggle हो या फिर वहाँ बने emotional connections, काबुलीवाला की यहीं feel आपको Veer-Zaara (2004), The Lunchbox (2013), The Namesake (2006), Bioscope Wala (2017) और तो और Cinema Paradiso (1988) जैसी films में देखने को मिलेंगी।

‘“Depth of friendship does not depend on length of acquaintance.”
– Rabindranath Tagore


आख़िर वो क्या बातें हैं जो इस novel को एक undying literary phenomenon बनाती हैं?

  • क्या fatherly love सिर्फ़ biological रिश्ता हो सकता है?
  • क्या हर कातिल एक बुरा इंसान होता है?
  • क्या होता है जब परदेस में अपनो की याद आए?
  • क्या एक दूसरे से बिलकुल अलग दो आदमी कोई common connection share कर सकते है?
  • क्या kindness भी एक तरह का heroic gesture हो सकता है??

इसे जानने और महसूस करने के लिए पढ़िए हमारा Premium Literary Blog जो एक evocative नज़र डालता है author की ज़िंदगी पर, novel की emotional soul पर, और कैसे यह timeless literary gem बन गयी Indian cinema की सबसे powerful फ़िल्मों में से एक।


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हमें उमीद है कि आपने यह किताब पढ़ी होगी, तो comment box में share करे वो क्या बातें है जो आपकी नज़र में इस novel को iconic बनाती है।

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